कबीरी अंदाज़

पं. चंद्रबली पाण्डेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पट्ट शिष्य थे। ब्रह्मचारी शिष्य को शुक्लजी अपने साथ ही रखते थे। पुत्रवत वात्सल्य पोषण देते हुए अंतरंग नैकट्य से शुक्लजी ने पाण्डेय जी के विद्या-व्यक्त्तित्व का आधार रचा था। पाण्डेय जी की हिंदी निष्ठा, लोगों की नज़र, दुराग्रह की सीमा को स्पर्श करती थी। हिंदी के पक्ष में वे कभी भी किसी से भी लोहा लेने को तैयार रहते थे। उनमें न तो लोकप्रियता की भूख थी और न पद प्रभुता की स्पृहा। इसलिये कबीरी अंदाज़ में किसी अनौचित्य और स्खलन पर तीखी टिप्पणी करते उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था। विद्या व्यापार को किसी प्रकार की छूट देना उन्हें क़तई मंजूर नहीं था। शुक्लजी उनके ज्ञान के प्रतिमान थे। शुक्लजी के पाठ पर पढ़कर और उसके अंतरंग नैकट्य में रहकर कठोर परिश्रम से उन्होंने विद्या-संस्कार अर्जित किया था। उनका निकष बड़ा कठोर था। इसलिये आचार्य केशवप्रसाद मिश्र और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे पण्डितों की निष्पत्तियों पर, विवेक के आग्रह से, प्राय: प्रश्नचिह्न खड़ा करते रहते थे।

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