Tuesday, September 3, 2013

चन्द्रबली पाण्डेय

चन्द्रबली पाण्डेय (अंग्रेज़ीChandrabali Pandey, जन्म-25 अप्रॅल1904 - मृत्यु- 24 जनवरी1958हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन, संवर्धन और संरक्षण के लिए समर्पित थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रहने के अतिरिक्त नागरी प्रचारिणी सभा के भी सभापति रहे। इन्होंने अपना पूरा जीवन अध्ययन और हिंदी प्रचार में लगा दिया। हिंदी उर्दू समस्या तथा सूफ़ी साहित्य और दर्शन से सम्बद्ध इनके विचार ऐतिहासिक महत्त्व के हैं।

जीवन परिचय

चन्द्रबली का जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के एक गाँव में हुआ था। चन्द्रबली ने हिन्दी की उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। आचार्यरामचन्द्र शुक्ल के आप प्रिय शिष्य थे। विश्वविद्यालय की परिधि से बाहर रहकर हिन्दी में शोध कार्य करने वालों में इनका प्रमुख स्थान है। हिन्दी के साथ अंग्रेज़ीउर्दू,फ़ारसीअरबी तथा प्राकृत भाषाओं के ज्ञाता चन्द्रबली पाण्डेय के सम्बन्ध में भाषा शास्त्री डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी की यह उक्ति सटीक है कि, 'पाण्डेय जी के एक-एक पैंफलेट भी डॉक्टरेट के लिए पर्याप्त हैं।' आजीवन अविवाहित रहकर चन्द्रबली ने हिन्दी की सेवा की थी। अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा के लिए चन्द्रबली ने कभी चेष्टा नहीं की थी। चन्द्रबली पाण्डेय द्वारा रचित छोटे-बड़े कुल ग्रन्थों की संख्या लगभग 34 है।[1]

आज़मगढ़ के विद्या-रत्न

काशी की प्रसिद्ध विद्या-विभूति पं. चंद्रबली पाण्डेय यद्यपि विश्वविद्यालय सेवा से नहीं जुड़े थे, पर विश्वविद्यालय परिसर में ही अपने मित्र मौलवी महेश प्रसाद के साथ रहते थे। बाद में वे डॉ. ज्ञानवती त्रिवेदी के बँगले पर आ गये थे। पं. शान्तिप्रियजी और पं. चंद्रबली पाण्डेय आज़मगढ़ के विद्या रत्न थे और आजमगढ़ के राहुल सांकृत्यायन को अपने जनपद के पं. चंद्रबली पाण्डेय, पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र और पं. शांतिप्रिय द्विवेदी की विद्या-साधना का सहज गर्व था। अपनी जीवन यात्रा में राहुल सांकृत्यायन जी ने अपनी भावना प्रकट की है। हैदराबाद हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पं. चंद्रबली पाण्डेय थे।[2]

रहने का कबीरी अंदाज़

पं. चंद्रबली पाण्डेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पट्ट शिष्य थे। ब्रह्मचारी शिष्य को शुक्लजी अपने साथ ही रखते थे। पुत्रवत वात्सल्य पोषण देते हुए अंतरंग नैकट्य से शुक्लजी ने पाण्डेय जी के विद्या-व्यक्त्तित्व का आधार रचा था। पाण्डेय जी की हिंदी निष्ठा, लोगों की नज़र, दुराग्रह की सीमा को स्पर्श करती थी। हिंदी के पक्ष में वे कभी भी किसी से भी लोहा लेने को तैयार रहते थे। उनमें न तो लोकप्रियता की भूख थी और न पद प्रभुता की स्पृहा। इसलिये कबीरी अंदाज़ में किसी अनौचित्य और स्खलन पर तीखी टिप्पणी करते उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था। विद्या व्यापार को किसी प्रकार की छूट देना उन्हें क़तई मंजूर नहीं था। शुक्लजी उनके ज्ञान के प्रतिमान थे। शुक्लजी के पाठ पर पढ़कर और उसके अंतरंग नैकट्य में रहकर कठोर परिश्रम से उन्होंने विद्या-संस्कार अर्जित किया था। उनका निकष बड़ा कठोर था। इसलिये आचार्य केशवप्रसाद मिश्र और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे पण्डितों की निष्पत्तियों पर, विवेक के आग्रह से, प्राय: प्रश्नचिह्न खड़ा करते रहते थे।[2]

प्रमुख रचनाएँ

आचार्य चंद्रबली पाण्डेय ने 'तसव्वुफ़ अथवा सूफ़ीमत' नामक पुस्तक लिखी, जो हिंदी में सूफ़ीमत का पहला क्रमबद्ध अध्ययन है। इस ग्रंथ में सूफ़ीमत का उद्भव, विकास, आस्था, प्रतीक, अध्यात्म साहित्य आदि विषयों पर विस्तार से विचार किया गया है। परिशिष्ट में तसव्वुफ़ का प्रभाव तथा तसव्वुफ़ पर भारत का प्रभाव, विषयों पर भी अध्ययन किया गया है। किंतु इसमें ईरान और अरब के सूफ़ीमत पर जितना विस्तार से विचार किया गया है उतना भारतीय सूफ़ीमतवाद पर नहीं। मलिक मुहम्मद जायसी तथा अन्य कवियों पर पाण्डेय जी के अन्य लेख भी नागरी प्रचारिणी पत्रिका में तथा अन्यत्र प्रकाशित हो चुके हैं। नूरमुहम्मद कृत 'अनुराग बांसुरी' में उन्होंने एक भूमिका दी है, जिसमें सूफ़ी कवियों की कुछ विशेषताएँ स्पष्ट की गई हैं।[3] पाण्डेय जी की प्रमुख रचनाएँ हैं, जो इस प्रकार है:-
  • उर्दू का रहस्य
  • तसव्वुफ़ अथवा सूफ़ीमत
  • भाषा का प्रश्न
  • राष्ट्रभाषा पर विचार
  • कालिदास
  • केशवदास
  • तुलसीदास
  • हिन्दी कवि चर्चा
  • शूद्रक
  • हिन्दी गद्य का निर्माण

हिंदी के अप्रीतम योद्धा

हिंदी के अप्रीतम योद्धा ने हिंदी-विरोधियों से उस समय लोहा लिया, जब हिंदी का सघर्ष उर्दू और हिंदुस्तानी से था। भाषा का प्रश्न राष्ट्रभाषा का प्रश्न था। भाषा विवाद ने इस प्रश्न को जटिल बनाकर उलझा दिया था। उर्दू भक्त हिंदी को 'हिंदुई' बताकर 'उर्दू' को हिंदुस्तानी बताकर देश में उर्दू का जाल फैला रहे थे। उर्दू समर्थकों की हिंदी-विरोधी नीतियों ने ऐसा वातावरण बुन दिया था, जिसमें अन्य भाषा-भाषी हिंदी को सशंकित दृष्टि से देखने लगे। स्वयं चंद्रबली पाण्डेय के शब्दों में उर्दू के बोलबाले का स्वरूप यों था- 'उर्दू का इतिहास मुँह खोलकर कहता है, हिंदी को उर्दू आती ही नहीं और उर्दू के लोग, उनकी कुछ न पूछिये। उर्दू के विषय में उन्होंने ऐसा जाल फैला रखा है कि बेचारी उर्दू को भी उसका पता नहीं। घर की बोली से लेकर राष्ट्र बोली तक जहाँ देखिये वहाँ उर्दू का नाम लिया जाता है।... उर्दू का कुछ भेद खुला तो हिंदुस्तानी सामने आयी।' भाषा विवाद के चलते हिंदी पर बराबर प्रहार हो रहे थे। हिंदी के विकास में उर्दू के हिमायतियों द्वारा तरह-तरह के अवरोध खड़े किये जा रहे थे, तब हिंदी की राह में पड़ने वाले अवरोधों को काटकर हिंदी की उन्नति और हिंदी के विकास का मार्ग प्रशस्त किया चंद्रबली पाण्डेय ने। उनके प्रखर विचारों ने भाषा संबंधी उलझनों को दूर कर हिंदी क्षेत्र को नई स्फूर्ति दी। उनके गम्भीर चिंतन, प्रखर आलोचकीय दृष्टि और आचार्यत्व ने हिंदी और हिंदी साहित्य को अपने ही ढंग से समृद्ध किया।[4]

निधन

चन्द्रबली पाण्डेय का निधन 24 जनवरी1958 ई. में हो गया था।

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