हिंदी के अप्रीतम योद्धा

हिंदी के अप्रीतम योद्धा ने हिंदी-विरोधियों से उस समय लोहा लिया, जब हिंदी का सघर्ष उर्दू और हिंदुस्तानी से था। भाषा का प्रश्न राष्ट्रभाषा का प्रश्न था। भाषा विवाद ने इस प्रश्न को जटिल बनाकर उलझा दिया था। उर्दू भक्त हिंदी को 'हिंदुई' बताकर 'उर्दू' को हिंदुस्तानी बताकर देश में उर्दू का जाल फैला रहे थे। उर्दू समर्थकों की हिंदी-विरोधी नीतियों ने ऐसा वातावरण बुन दिया था, जिसमें अन्य भाषा-भाषी हिंदी को सशंकित दृष्टि से देखने लगे। स्वयं चंद्रबली पाण्डेय के शब्दों में उर्दू के बोलबाले का स्वरूप यों था- 'उर्दू का इतिहास मुँह खोलकर कहता है, हिंदी को उर्दू आती ही नहीं और उर्दू के लोग, उनकी कुछ न पूछिये। उर्दू के विषय में उन्होंने ऐसा जाल फैला रखा है कि बेचारी उर्दू को भी उसका पता नहीं। घर की बोली से लेकर राष्ट्र बोली तक जहाँ देखिये वहाँ उर्दू का नाम लिया जाता है।... उर्दू का कुछ भेद खुला तो हिंदुस्तानी सामने आयी।' भाषा विवाद के चलते हिंदी पर बराबर प्रहार हो रहे थे। हिंदी के विकास में उर्दू के हिमायतियों द्वारा तरह-तरह के अवरोध खड़े किये जा रहे थे, तब हिंदी की राह में पड़ने वाले अवरोधों को काटकर हिंदी की उन्नति और हिंदी के विकास का मार्ग प्रशस्त किया चंद्रबली पाण्डेय ने। उनके प्रखर विचारों ने भाषा संबंधी उलझनों को दूर कर हिंदी क्षेत्र को नई स्फूर्ति दी। उनके गम्भीर चिंतन, प्रखर आलोचकीय दृष्टि और आचार्यत्व ने हिंदी और हिंदी साहित्य को अपने ही ढंग से समृद्ध किया 

1 comment:

  1. क्या आप बता सकेंगे कि चंद्रबली जी का निधन किस वर्ष में हुआ था?

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